समलैंगिक विवाह पर अलग-अलग राय, मगर ऐसी कौन सी बात थी, जिस पर सभी जज हो गए सहमत? जानें कोर्ट के अंदर की बात

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सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से इनकार कर दिया. मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एस के कौल ने अपने फैसले में कहा कि ऐसे जोड़ों को विवाह का अधिकार है, लेकिन संविधानिक पीठ के अन्य तीन जज उनकी राय से इत्तेफाक नहीं थे.

हालांकि पीठ के सभी जज इस बात पर सहमत थे कि भारत सरकार ऐसे जोड़ों के साथ रहने को विवाह के रूप में मान्यता दिये बगैर भी इनके अधिकारों और जरूरतो का फैसला लेने के लिए एक कमेटी का गठन करे.

मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़, जस्टिस कौल के अलावा जस्टिस एस रवींद्र भट्ट, जस्टिस हिमा कोहली, जस्टिस पी एस नरसिम्हा की संविधानिक पीठ ने इस मामले में समलैंगिक लोगों की याचिकाओं को सुना. कोर्ट ने करीब दस दिन की लंबी सुनवाई के दौरान सभी पक्षों को सुनने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. आज पीठ की ओर से इस मामले में चार फैसले पढ़े गये.

मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि समलैंगिक लोगों को विवाह और बच्चे गोद लेने का अधिकार है. समलैंगिक रिश्ते सिर्फ इलीट या शहरी वर्ग का कॉन्सेप्ट नहीं है. उन्होंने कहा कि विवाह का संस्थान जड़ नहीं है, उसमे बदलाव होते रहे हैं. सती, विधवा विवाह से पीकर अंतर्जातीय विवाह तक अनेक बदलाव हुए हैं. हालांकि उन्होंने कहा कि विवाह को कानूनी मान्यता देने का अधिकार संसद का काम है. कानून संसद बनाती है, कोर्ट सिर्फ क़ानून की व्याख्या कर सकता है. विधायिका के अधिकार में दखल देते समय अदालत को सावधानी रखनी चाहिये. जस्टिस एस के कौल भी मोटे तौर पर मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ से सहमत नजर आये.

समलैंगिक हिंसा पर कोर्ट का दखल

जस्टिस एस रवींद्र भट्ट मुख्य न्यायाधीश से सहमत नहीं थे. उनका कहना था कि विवाह की परिकल्पना सिर्फ कानून के जरिए हो सकती है. वर्तमान मामला ऐसा नहीं है, जिसमें कानूनी मान्यता दिलवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट दखल दे. समलैंगिक अधिकारों के पुराने मामालों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि कोर्ट ने उनमे समलैंगिक लोगों को हिंसा या अपराध से बचाने के लिए दखल दिया था. जो किसी भी नागरिक अधिकार को बचाने के तहत सरकार की जिम्मेदारी है. लेकिन विवाह के मामले में ऐसा नहीं है. विवाह सामाजिक संस्थान है और ये बुनियादी अधिकार नहीं हो सकता. उन्होंने कहा कि समलैंगिक लोग अपना साथी चुनने का अधिकार रखते हैं लेकिन सरकार को ऐसे मिलन को कानूनी मान्यता देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. जस्टिस हिमा कोहली भी जस्टिस रवींद्र भट्ट से सहमत रहीं.

सरकार कमेटी बनाकर लेगी अधिकारों पर फैसला

जस्टिस नरसिम्हा ने कहा कि विवाह का अधिकार संस्कृति से निकलता है. साथ रहने के अधिकार को विवाह के अधिकार में तब्दील करने को संविधानिक रूप से अनुमति नहीं दी जा सकती. अब इस मामले में सरकार एक कमेटी बनाएगी जो समलैंगिक लोगों के जीवन से जुड़े अधिकारों के बारे में चर्चा कर फैसला लेगी. केंद्र सरकार ने भी इस मामले में विवाह का अधिकार दिये जाने का विरोध करते हुए बाकी अधिकारों के लिये कमेटी बनाने के सुझाव दिया था.

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