हरियाणा विधानसभा चुनाव: बीजेपी का नुकसान करवाएंगे गौरक्षक? समझिए गौरक्षा के मुद्दे का अर्थशास्त्र

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हरियाणा में विधानसभा चुनाव का माहौल गरम है. बीजेपी लगातार तीसरी बार सत्ता में आने के लिए कमर कसे हुई है.

2014 में जब बीजेपी पहली बार हरियाणा में सत्ता में आई थी, उसके बाद से राज्य में गौरक्षा से जुड़ी हिंसा के मामले लगातार चर्चा में रहे. गौ रक्षा के नाम पर कई मुस्लिमों की हत्या के आरोप भाजपा समर्थकों पर लगे.

हाल का एक मामला फरीदाबाद का है, जहां 23 अगस्त को गौ रक्षक होने का दावा करने वाले लोगों ने आर्यन मिश्रा नाम के एक हिन्दू नौजवान को खदेड़कर गोली मार दी. पुलिस के मुताबिक आरोपियों ने माना कि उन्होंने गौ तस्कर होने और गोमांस ले जाने के शक में आर्यन को मार डाला. आर्यन 12वीं का छात्र था और गौ तस्करी या गोमांस से उसका कोई लेना-देना नहीं था.

गौ रक्षा के बहाने राजनीति चमकाने वाले नेता

आर्यन का परिवार इंसाफ का इंतजार कर रहा है, उधर गौ रक्षक चुनाव मैदान में उतर गए हैं. उसी फरीदाबाद इलाके में जिसे कथित गौरक्षकों ने आर्यन के खून से लाल किया था. हाल ही में गौ रक्षा बजरंग फोर्स नाम से संगठन बनाने वाले स्वयंभू गौ रक्षक बिट्टू बजरंगी मैदान में निर्दलीय उम्मीदवार बन कर उतरे हैं. नूंह दंगा मामले में जमानत पर बाहर बिट्टू ने एनआईटी फरीदाबाद सीट से पर्चा भरा है.

गौ रक्षा भाजपा का प्रिय मुद्दा

गौ रक्षा भाजपा का प्रिय मुद्दा रहा है. पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने 2023-24 में हरियाणा गौसेवा आयोग के लिए 400 करोड़ रुपए का बजट दिया था. खट्टर ने पिछले साल के मुक़ाबले इस आयोग का बजट सीधे दस गुना बढ़ा दिया था. तब खट्टर ने यह भी बताया था कि हरियाणा में 632 गौशालाएं हैं, जिनमें 4.6 लाख आवारा पशु रखे जाते हैं. आवारा पशु किसानों के लिए बड़ी समस्या तो खड़ी करते ही हैं, लोगों के लिए जानलेवा भी साबित होते हैं. अगस्त 2022 में सरकार ने विधानसभा में बताया था कि बीते पांच साल में आवारा पशुओं ने 900 लोगों की जान ली.

…पर चुनावी फायदे वाला है क्या गौरक्षा का मुद्दा?

भाजपा शासित सरकारें गौ रक्षा के नाम पर सरकारी योजनाएं चलाती रही हैं. भाजपा से जुड़े लोग गौ रक्षा के नाम पर हिंसा करने और लोगों की जान तक लेने के आरोपी रहे हैं. उन्हें लगता है कि बीजेपी को और खुद उन्हें इसका राजनीतिक फायदा मिलेगा, लेकिन हरियाणा चुनाव में भाजपा के लिए यह मुद्दा कितना फायदेमंद साबित हो सकता है और इस मुद्दे से राज्य में पशुधन से जुड़ी अर्थव्यवस्था कैसे प्रभावित हो सकती है, जानते हैं.

भारत सरकार की 2019 की एक सिचुएशन असेसमेंट सर्वे (एसएएस) के आंकड़ों की तुलना 2012-13 से करें तो पता चलता है कि हरियाणा में पशुपालन करने और दूध बेचने वाले ग्रामीण परिवारों में ख़ासी गिरावट आई है. दूध बेचने वाले परिवारों में ज्यादा गिरावट आई है. आंकड़ों के विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि हरियाणा में हिंदुओं की तुलना में मुस्लिम कृषक परिवारों की संख्या ज्यादा घटी है. हालांकि, राष्ट्रीय औसत की तुलना में दोनों ही समुदायों के कृषक परिवार कम हुए हैं.

दूध बेचने वाले मुस्लिम परिवारों की संख्या में कमी का मतलब उनकी आर्थिक हालत पर बुरा असर पड़ना है. यह उन्हें भाजपा से दूर ले जा सकता है. यह बात सही है कि मुस्लिम आबादी और समर्थकों की संख्या के लिहाज से मुस्लिम वोट भाजपा के लिए बहुत मायने नहीं रखते. फिर भी भाजपा मुसलमानों को रिझाने की कोशिशें लगातार करती रही है.

गाय जनता पर बोझ?

हरियाणा में गाय की आबादी बढ़ी है. 2012 की पशुगणना के मुताबिक हरियाणा में 18.07 लाख गायें थीं, जो 2019 में 19.32 लाख (सात प्रतिशत ज्यादा) हो गईं, लेकिन इस दौरान भैंसों की संख्या में 27 फीसदी से भी ज्यादा की कमी दर्ज की गई. 2012 में 57.64 लाख भैंसें गिनी गई थीं. 2019 में 43.76 लाख ही रहीं. गायों की आबादी बढ़ने के बावजूद दूध बेचने वाले परिवारों की संख्या में कमी इस बात का इशारा करती है कि लोग गैर-उत्पादक जानवर रखने को मजबूर हैं. यह अपने आप में एक आर्थिक चोट है और इसकी मार हिन्दू हों या मुसलमान, सभी को झेलनी पड़ती है. मेरा निजी अनुमान है कि एक गाय पालने का महीने का खर्च करीब 4-5 हजार रुपये बैठता है. शायद इसी मुश्किल से निपटने के लिए सरकार गौशालाओं पर बड़ी रकम खर्च करती रही है.

पशु व्यापार की भी टूटी कमर

गौ रक्षा के नाम पर भाजपा समर्थकों की हरकतों का असर जानवरों के व्यापार पर भी पड़ा है. लोग जानवरों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में डरते हैं. यह भी राज्य की अर्थव्यवस्था और सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में जाने वाली बात नहीं मानी जा सकती. ये तो हुई गौ रक्षा से जुड़े मुद्दे का असर. अब हरियाणा चुनाव में किसानों के महत्व और उनके रुख की भी थोड़ी बात कर लेते हैं. हरियाणा की करीब 45 फीसदी आबादी खेती-किसानी से जुड़ी है. किसान एमएसपी की गारंटी सहित कई मांगों को लेकर लगातार प्रदर्शन कर रही है. उसका गुस्सा बीजेपी पर है.

राज्य में किसानों और किसानी की हालत खराब है. ऊपर से बेरोजगारी. पार्टियां इन समस्याओं को समझ भी रही हैं, लेकिन इनका हल भाषणों और घोषणापत्रों तक ही सीमित दिखाई देता है. कांग्रेस ने एमएसपी की गारंटी देने का वादा किया है तो भाजपा ने 24 फसलें एमएसपी पर खरीदे जाने का. आर्थिक लिहाज से हरियाणा में खेती का महत्व पिछले सालों में घटा है, लेकिन कृषि परिवारों की संख्या ज्यादा नहीं घटी है. ऐसे में बतौर वोटर्स किसानों का दम कम नहीं हुआ है.

अगर 2012-13 और 2018-19 के एसएएस के आंकड़ों को देखें तो फसल और पशुपालन से हरियाना के खेतिहर परिवारों की आमदनी घटी है. मजदूरी से उनकी आय बढ़ी है. मतलब अपने काम के दाम से ज्यादा फाइदा दूसरों का काम करने से हो रहा है. यह पार्टियों के लिए खुश होने का संकेत नहीं है.

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