मकर संक्रांति के दिन करें ये स्तुति पाठ, अन्न-धन की नहीं होगी कमी, घर में बनी रहेगी समृद्धि

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हिंदू धर्म में मकर संक्रांति का बहुत अधिक महत्व माना जाता है. इसे प्रमुख त्योहारों में से एक माना जाता है. इस दिन लगभग हर घर में तिल के लड्डू बनाए जाते हैं.

मकर संक्रांति के पर्व में ना सिर्फ तिल बल्कि स्नान-दान व पूजा पाठ का भी विशेष महत्व माना जाता है. मान्यता है कि मकर संक्रांति के इस पावन अवसर पर गंगा स्नान कर गंगा पूजा का भी विशेष महत्व है.

इसके अलावा इस दिन गंगा स्तुति का पाठ करने का भी विशेष महत्व है. माना जाता है कि मकर संक्रांति पर गंगा स्तुति का पाठ करने से घर में अन्न-धन की भी कमी नहीं होती और हमेशा से ही सुख-समृद्धि का वास होता है. इसके बारे में विस्तार से ज्योतिषाचार्य पंडित रमाकांत मिश्रा से जानते हैं.

श्री गंगा जी की स्तुति

आप मकर संक्रांति के दिन सुबह स्नान करने के बाद गंगा स्तुति का पाठ कर सकते हैं. माना जाता है कि इस दिन सच्चे मन से गंगा स्तुति का पाठ करना बहुत शुभ व फलदायी माना जाता है. गंगा स्तुति का पाठ सच्चे भाव से पढ़कर आप मकर संक्रांति पर मां गंगा का आशीर्वाद पा सकते हैं.

गंगा स्तुति पाठ-

गांगं वारि मनोहारि मुरारिचरणच्युतम् ।
त्रिपुरारिशिरश्चारि पापहारि पुनातु माम् ॥

मां गंगा स्तोत्रम्॥

देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे
त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले
मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥१॥

भागीरथि सुखदायिनि मातस्तव
जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं
पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ २॥

हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गे
हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गे ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं
कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ ३॥

तव जलममलं येन निपीतं,
परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।
मातर्गङ्गे त्वयि यो भक्तः
किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ ४॥

पतितोद्धारिणि जाह्नवि गङ्गे
खण्डितगिरिवरमण्डितभङ्गे ।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये,
पतितनिवारिणि त्रिभुवनधन्ये ॥ ५॥

कल्पलतामिव फलदां लोके,
प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणि गङ्गे
विमुखयुवतिकृततरलापाङ्गे ॥ ६॥

तव चेन्मातः स्रोतःस्नातः
पुनरपि जठरे सोऽपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गे
कलुषविनाशिनि महिमोत्तुङ्गे ॥ ७॥

पुनरसदङ्गे पुण्यतरङ्गे
जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गे ।
इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणे
सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ ८॥

रोगं शोकं तापं पापं
हर मे भगवति कुमतिकलापम्।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे
त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे॥ ९॥

अलकानन्दे परमानन्दे
कुरु करुणामयि कातरवन्द्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः
खलु वैकुण्ठे तस्य निवासः ॥ १०॥

वरमिह नीरे कमठो मीनः
किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवा श्वपचो मलिनो दीनस्तव
न हि दूरे नृपतिकुलीनः॥ ११॥

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भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये
देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं
पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥ १२॥

येषां हृदये गङ्गाभक्तिस्तेषां
भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकान्तापज्झटिकाभिः
परमानन्दकलितललिताभिः ॥ १३॥

गङ्गास्तोत्रमिदं भवसारं
वाञ्छितफलदं विमलं सारम् ।
शङ्करसेवकशङ्कररचितं पठति
सुखी स्तव इति च समाप्तः ॥ १४॥

देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे
त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले
मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥

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